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मुंबई, ज्यादातर बसों में सीसीटीवी वैâमरे लगे होते हैं, बस में ड्राइवर के अलावा कंडक्टर या अटेंडेंट होते हैं। अक्सर महिला अटेंडेंट बसों में नियुक्त किए जाते हैं। बस के कर्मचारी तब तक बच्चों को छोड़ते नहीं जब तक बच्चों के गार्जियन वहां पहुंच नहीं जाते। बसों में जीपीएस ट्रेक लगा होता है, जिससे अभिभावकों को पता चल जाता है कि स्कूल बस कहां तक पहुंची है। स्कूल बस ओनर्स एसोसिएशन के अनुसार, कोरोना के चलते वैसे ही पचास हजार स्कूली बसों के बंद हो जाने से लगभग डेढ़ लाख्aा बस कर्मचारी प्रभावित हुए थे। महिला अटैंडेंट की नौकरी चली गई थी। कई बस मालिकों ने लोन पर बसें खरीदी थीं। अब जब सब कुछ शुरू हो गया है तब इन प्राइवेट गाड़ियों के अवैध रूप से चलने से फिर से बस सेवा लड़खड़ा गई है। मुंबई में लगभग २,८०० बसें बंद कर देनी पड़ी हैं, पहले सड़कों पर ८,००० बसें दौड़ती थीं, जिनमें से अब केवल ५,२०० बसें ही स्कूल के बच्चों को लाने-ले जाने की सेवा में लगी हुई हैं।
स्कूल की बसें सरकार के सभी नियमों को फॉलो करती हैं, टैक्स भरती हैं, मेंटेनेंस पर ध्यान देती हैं और बच्चों को स्कूल लाने-ले जाने में सभी प्रकार की सुरक्षा का ध्यान रखती हैं। इसके बावजूद अभिभावक स्कूल बस से मुंह मोड़ रहे हैं। वहीं अभिभावकों का कहना है कि निजी वाहनों की दर में काफी फर्क है। बस के मुकाबले वे सस्ते होते हैं। दूसरी बात, बस के मुकाबले प्राइवेट गाड़ियों वाले बच्चों को कम समय में पहुंचा देते हैं।
आरटीआई कार्यकर्ता अनिल गलगली के अनुसार प्राइवेट वैन की अपेक्षा स्कूल बस ज्यादा सुरक्षित होती हैं। ऑटोरिक्शा, टैक्सी-कार या वैन यानी निजी वाहन ज्यादातर ‘फायर व रोड सेफ्टी’ नियमों को ताक पर रखकर चलते हैं। लेकिन बावजूद इसके लोग निजी वाहनों को प्राथमिकता दे रहे हैं। गलगली ने उदाहरण देते हुए बताया कि मुंबई में ट्रैफिक जाम की समस्या आम हो गई है। कुर्ला जैसे इलाके में छोटे वाहन जल्दी आगे नहीं बढ़ पाते हैं, ऐसे में स्कूल बस को तो देर लगेगा ही। परीक्षा या हेसे ही महत्वपूर्ण समय पर छात्रों को कहीं देरी न हो जाए इसके लिए अभिभावक बस की अपेक्षा निजी वाहनों को प्राथमिकता देते हैं।
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